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Friday, September 23, 2016

Uttarakhand उत्तराखण्ड

Uttarakhand is both the new and traditional name of the state that was formed from the hill districts of Uttar Pradesh, India. Literally North Country or Section in Sanskrit, the name of Uttarakhand finds mention in the early Hindu scriptures as the combined region of Kedarkhand and Manaskhand..
  
                                                                                                                         

उत्तराखण्ड में अंग्रेजों का आगमन बिहार के सिघौली में 1815 में अंग्रेजों एवं गोर्खाओं के बीच हुई संधि के बाद हुआ। इससे पूर्व चन्द राजाओं के पतन के बाद गोर्खाओं के राज (कुमाऊं में 1790 से 1815 और गढ़वाल में 1804 से 1815 तक) में यहां के लोग खासे परेशान थे। गोर्खाली राज शासकीय जुल्मों का बेहद ही काला अध्याय रहा। इस दौर में कढ़ाई दीप व पाथर दान के मूर्खतापूर्ण तरीकों से दण्ड देने के प्राविधान थे। किसी व्यक्ति पर किसी अपराध का शक भी होता, तो उसका `पाथर दान´ के तहत पत्थरों से वजन लिया जाता और एक माह तक उसे बिना भोजन, केवल पानी देकर गुफा में रखा जाता। एक माह बाद उसका पुन: वजन लिया जाता, जो निश्चित ही भोजन न मिलने से पहले से कम होता, और इस आधार पर उसे दोषी मान लिया जाता व कड़ी सजा दी जाती। इसी प्रकार `कढ़ाई दीप´ के तहत शक होने पर व्यक्ति के हाथ खौलते घी में डाले जाते और जलने पर उसे दोषी मान लिया जाता। इस कारण हर्ष देव जोशी, जो कि पूर्व में चन्द वंशीय राजाओं के अन्तिम दीवान थे, अंग्रेजों को यहां लेकर आऐ। अंग्रेजों के इस पर्वतीय भूभाग में आने के कारण यहां की प्राकृतिक सुन्दरता से अभिभूत होने के साथ ही व्यापारिक भी थे। उन दिनों भारत का तिब्बत व नेपाल से बड़ा व्यापारिक लेन-देन होता था। यहां जौलजीवी, बागेश्वर, गोपेश्वर व हल्द्वानी आदि में बड़े व्यापारिक मेले होते थे। 19वीं शताब्दी का वह समय औपनिवेशिक वैश्विकवाद व साम्राज्यवाद का दौर था। नऐ उपनिवेशों की तलाश व वहां साम्राज्य फैलाने के लिए फ्रांस, इंग्लैण्ड व पुर्तगाल जैसे यूरोपीय देश समुद्री मार्ग से भारत आ चुके थे, जबकि रूस स्वयं को इस दौड़ में पीछे रहता महसूस कर रहा था। कारण, उसकी उत्तरी समुद्री सीमा में स्थित वाल्टिक सागर व उत्तरी महासागर सर्दियों में जम जाते थे। तब स्वेज नहर भी नहीं थी। ऐसे में उसने काला सागर या भूमध्य सागर के रास्ते भारत आने के प्रयास किऐ, जिसका फ्रांस व तुर्की ने विरोध किया। इस कारण 1854 से 1856 तक दोनों खेमों के बीच क्रोमिया का विश्व प्रसिद्ध युद्ध हुआ। इस युद्ध में रूस पराजित हुआ, जिसके फलस्वरूप 1856 में हुई पेरिस की संधि में यूरोपीय देशों ने रूस पर काला सागर व भूमध्य सागर की ओर से सामरिक विस्तार न करने का प्रतिबंध लगा दिया। ऐसे में भारत आने के लिए उत्सुक रूस के भारत आने के अन्य मार्ग बन्द हो गऐ थे, और वह केवल तिब्बत की ओर के मार्गों से ही भारत आ सकता था। तिब्बत से उत्तराखण्ड के लिपुलेख, नीति, माणा व जौहार घाटी के पहाड़ी दर्रों से आने के मार्ग बहुत पहले से प्रचलित थे। यूरोपीय देशों को इन रास्तों की जानकारी कमोबेश 1624 से थी। 1624 में आण्ड्रा डे नाम के यूरोपीय ने श्रीनगर गढ़वाल के रास्ते ही शापरांग तिब्बत जाकर वहां चर्च बनाया था। इसलिए कंपनी सरकार ने रूस की उत्तराखण्ड के रास्ते भारत आने की संभावना को भांप लिया, लिहाजा उसके लिए `जियो पालिटिकल´ यानी भौगोलिक व राजनीतिक कारणों से उत्तराखण्ड बेहद महत्वपूर्ण हो गया था।
सम्भवतया इस कारण कि यहां के लोग रूस को भारत आने का रास्ता न दे दें, अंग्रेजों ने इस क्षेत्र में कानूनों को शिथिल रखा। इसका एक कारण अंग्रेजों को इस भूभाग का भौगोलिक तौर पर उनके अपने घर जैसा होना भी एक कारण हो सकता है। सो, कंपनी सरकार ने इस क्षेत्र को पूरे देश से हटकर `नॉन रेगुलेटिंग प्रोविंस´ घोषित किया। यहां का कमिश्नर सीधे वायसराय के अधीन होता था। वह `स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार´ कानून बनाता था, उसे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जैसे न्यायिक अधिकार भी थे। जबकि देश के अन्य क्षेत्रों के लिए `कोर्ट ऑफ डायरेक्टर´ कानून बनाते थे। इसलिए यहां पारंपरिक कानूनों को बहुत अधिक महत्व दिया गया। इससे यहां गांव की पंचायतों एवं घर के बुजुर्ग भी जैसे संपत्तियों के बंटवारे आदि में कोई बात कहते थे, तो उसे कानून की मान्यता थी। जबकि देश के अन्य क्षेत्रों में मिताक्षर कानून, जिन्हें `मनु के नियम´ भी कहा जाता है। इसी पर आज यूपी में `मनुवादी´ जैसे शब्द प्रचलित हैं। इस तरह कहा जा सकता है कि यहां `मनुवादी सोच´ नहीं रही।

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अंग्रेजों ने इन्हीं `जियो पालिटिकल´ कारणों के कारण यहां स्काटलेण्ड के अधिकारियों को कमिश्नर जैसे बड़े पदों पर रखा। स्काटलेण्ड इंग्लेण्ड का उत्तराखण्ड की तरह का ही पर्वतीय इलाका है, लिहाजा वहां के मूल निवासी अधिकारी यहां के पहाड़ों के हालातों को भी बेहतर समझ सकते थे। कुमाऊं कमिश्नर हैनरी रैमजे, जीडब्ल्यू ट्रेल, लूसिंग्टन आदि सभी स्काटलेण्ड के थे। इनमें से रैमजे कुमाउनीं में बातें करते थे, उन्होंने यहां कई सुधार कार्य किऐ, बल्कि उन्हें यदा-कदा लोग `राम जी´ भी कह दिया करते थे। ट्रेल ने एक अन्य यात्रा मार्ग ट्रेलपास की खोज की, नैनीताल की खोज का भी उन्हें श्रेय दिया जाता है। कहा जाता है कि उन्होंने इस क्षेत्र से लोगों की धार्मिक भावनाओं का जुड़ाव व अप्रतिम सुन्दरता को अंग्रेजों की नज़रों से भी बचाने का प्रयास किया, और क्षेत्रीय लोगों से भी इस स्थान पर अंग्रेजों को न लाने को प्रेरित किया। लूसिंग्टन नैनीताल की बसासत के दौरान कमिश्नर थे। उन्होंने यहां सार्वजनिक हित के अलावा व्यक्तिगत कार्यों के लिए भूमि के प्रयोग पर प्रतिबंध लगा दिया था, और यहां स्वयं का घर भी नहीं बनाया। उनकी कब्र आज भी नैनीताल में मौजूद है। इसका अर्थ यह हुआ कि उस दौर की कंपनी सरकार पहाड़ों के प्रति बेहद संवेदनशील थी।
शायद यही कारण रहा कि 1857 में जब देश कंपनी सरकार के खिलाफ उबल रहा था, पहाड़ में एकमात्र काली कुमाऊं में कालू महर व उनके साथियों ने ही रूहेलों से मिलकर आन्दोलन किऐ, हल्द्वानी से रुहेलों के पहाड़ की ओर बढ़ने के दौरान हुआ युद्ध व अल्मोड़ा जेल आदि में अंग्रेजों के खिलाफ छिटपुट आन्दोलन ही हो पाऐ। और जो आन्दोलन हुऐ उन्हें जनता का समर्थन हासिल नहीं हुआ। हल्द्वानी में 100 से अधिक रुहेले मारे गऐ। कालू महर व उनके साथियों को फांसी पर लटका दिया गया।
शायद इसीलिए 1857 में जब देश में कंपनी सरकार की जगह `महारानी का राज´ कायम हुआ, अंग्रेज पहाड़ों के प्रति और अधिक उदार हो गऐ। उन्होंने यहां कई सुधार कार्य प्रारंभ किऐ, जिन्हें पूरे देश से इतर पहाड़ों पर अंग्रेजों द्वारा किऐ गऐ निर्माणों के रूप में भी देखा जा सकता है।
लेकिन इस कवायद में उनसे कुछ बड़ी गलतियां हो गईं। मसलन, उन्होंने पीने के पानी के अतिरिक्त शेष जल, जंगल, जमीन को अपने नियन्त्रण में ले लिया। इस वजह से यहां भी अंग्रेजों के खिलाफ नाराजगी शुरू होने लगी, जिसकी अभिव्यक्ति देश के अन्य हिस्सों से कहीं देर में पहली बार 1920 में देश में चल रहे `असहयोग आन्दोलन´ के दौरान देखने को मिली। इस दौरान गांधी जी की अगुवाई में आजादी की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस पार्टी यहां के लोगों को यह समझाने में पहली बार सफल रही कि अंग्रेजों ने उनके प्राकृतिक संसाधनों पर अपना अधिकार जमा लिया है। कांग्रेस का कहना था कि वन संपदा से जुड़े जनजातीय व ऐसे क्षेत्रों के अधिकार क्षेत्रवासियों को मिलने चाहिऐ। इसकी परिणति यह हुई कि स्थानीय लोगों ने जंगलों को अंग्रेजों की संपत्ति मानते हुऐ 1920 में 84,000 हैक्टेयर भूभाग के जंगल जला दिऐ। इसमें नैनीताल के आस पास के 112 हैक्टेयर जंगल भी शामिल थे। इस दौरान गठित कुमाऊं परिशद के हर अधिवेशन में भी जंगलों की ही बात होती थी, लिहाजा जंगल जलते रहे। सविनय अवज्ञा आन्दोलन के दौरान 1930-31 के दौरान और 1942 तक भी यही स्थिति चलती रही, तब भी यहां बड़े पैमाने पर जंगल जलाऐ गऐ। कुली बेगार जो कि वास्तव में गोर्खाली शासनकाल की ही देन थी, यह कुप्रथा हालांकि अंग्रेजों के दौरान कुछ शिथिल भी पड़ी थी। इतिहासकार पद्मश्री शेखर पाठक के अनुसार इसे समाप्त करने के लिए अंग्रेजों ने खच्चर सेना का गठन भी किया था। इस कुप्रथा के खिलाफ जरूर पहाड़ पर बड़ा आन्दोलन हुआ, जिससे पहाड़वासियों ने कुमाऊं परिषद के संस्थापक बद्री दत्त पाण्डे, हरिगोविन्द पन्त तथा चिरंजीवी लाल आदि के नेतृत्व में 14 जनवरी 1921 को उत्तरायणी के पर्व पर बागेश्वर में पीछा छुड़ाकर ही दम लिया। गढ़वाल में बैरिस्टर मुकुन्दी लाल के नेतृत्व में 30 जनवरी 21 को इसी तरह आगे से `कुली बेगार´ न देने की शपथ ली गई। सातवीं शताब्दी में कत्यूरी शासनकाल में भी बेगार का प्रसंग मिलता है। कहते हैं कि अत्याचारी कत्यूरी राजा वीर देव ने अपनी डोली पहाड़ी पगडण्डियों पर हिंचकोले न खाऐ, इसलिए कहारों के कंधों में हुकनुमा कीलें फंसा दी थी। कहते हैं कि इसी दौरान कुमाऊं का प्रसिद्ध गीत `तीलै धारो बोला...´ सृजित हुआ था। गोरखों के शासनकाल में खजाने का भार ढोने से लोगों के सिरों से बाल गायब हो गऐ थे। कुमाउनीं के आदि कवि गुमानी पन्त की कविता `दिन दिन खजाना का भार बोकना लै, शिब-शिब चूली में न बाल एकै कैका...´ कविता लिखी गई।
 
                   

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